Lekhika Ranchi

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शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की रचनाएंः श्रीकांत भाग--8


श्रीकांत ः
 शरतचन्द्र चट्टो
अध्याय 8

एकाएक अभया दरवाजा खोलकर आ खड़ी हुई; बोली, “जन्म-जन्मान्तर के अन्ध संस्कार के धक्के से पहले पहल अपने आपको सँम्हाल न सकी, इसीलिए मैं भाग खड़ी हुई थी श्रीकान्त बाबू, उसे आप मेरी सचमुच की लज्जा मत समझना।”

उसके साहस को देखकर मैं अवाक् हो गया। वह बोली, “आपको अपने डेरे को लौटने में आज कुछ देरी हो जायेगी, क्योंकि रोहिणी बाबू आते ही होंगे। आज हम दोनों ही आपके आसामी हैं। आपके विचार में यदि हम लोग अपराधी सुबूत हों, तो जो दण्ड आप देंगे उसे हम मंजूर करेंगे।”

रोहिणी को 'बाबू' कहते यह पहली बार ही सुना। मैंने पूछा, “आप वापस कब लौट आईं?”

अभया बोली, “परसों। वहाँ क्या हुआ, यह जानने का आपको निश्चय ही कुतूहल हो रहा है।” यह कहकर उसने अपना दाहिना हाथ उघाड़कर दिखाया। बेंत के निशान चमड़े पर जगह-जगह उभड़ रहे थे। बोली, और बहुत-से ऐसे निशान भी हैं जिन्हें आपको दिखा नहीं सकती।”

जिन दृश्यों को देखकर मनुष्य का पुरुषत्व हिताहित का ज्ञान खो बैठता है, यह भी उन्हीं में से एक था। अभया ने मेरे स्तब्ध कठोर मुख की ओर देखकर पल-भर में ही सब कुछ समझ लिया और कुछ हँसकर कहा, “किन्तु मेरे वापस लौट आने का यही एक कारण नहीं है श्रीकान्त बाबू, यह तो मेरे सतीधर्म का एक छोटा-सा पुरस्कार है। वे मेरे पति हैं और मैं उनकी विवाहिता स्त्री- यह इसी की जरा-सी बानगी है।”

क्षण-भर चुप रहकर उसने फिर कहना शुरू किया, “मैंने स्त्री होकर पति की अनुमति के बगैर ही इतनी दूर आकर उनकी शान्ति भंग कर दी- स्त्री-जाति की इतनी बड़ी हिमाकत पुरुष-जाति बरदाश्त नहीं कर सकती। यह उसी का दण्ड है। अनेक तरह से भुलावा देकर वे मुझे अपने घर ले गये और वहाँ मुझसे कैफियत तलब की कि क्यों मैं रोहिणी के साथ यहाँ तक आई? मैंने कहा कि पति का घर होता है सो तो मैंने आज तक जाना नहीं। मेरे बाप है नहीं, माँ भी मर गयी- ऐसा कोई नहीं है जो मुझे वहाँ खाने-पीने को दे। तुम्हें बार-बार चिट्ठी लिखने पर भी जवाब नहीं पाया। उन्होंने एक बेंत उठाकर कहा, “आज उसका जवाब देता हूँ।” इतना कहकर अभया ने अपने उस चोट खाए हुए दाहिने हाथ को एक बार सहला लिया।

उस अत्यन्त हीन, अमानुष, बर्ब्बर के विरोध में मेरे सारे अन्त:करण में फिर हलचल मच गयी, किन्तु, जिस अन्ध-संस्कार के फलस्वरूप अभया मुझे देखते ही भागकर छिप गयी थी, वह संस्कार मेरे भी तो था! मैं भी तो उसकी सीमा के बाहर नहीं था! इसलिए मैं यह भी नहीं कह सका कि 'तुमने अच्छा किया।' साथ ही यह भी मुँह से न निकला कि 'अपराध किया है।' दूसरे के अत्यन्त संकट के समय जब अपने निज के विवेक और संस्कार के- स्वाधीन विचार और पराधीन ज्ञान के बीच संघर्ष छिड़ता है तब दूसरे को उपदेश देने जाने जैसी विडम्बिना संसार में शायद ही कोई हो। कुछ देर चुप रहकर बोला, “तुम्हारा वहाँ से चला आना अन्याय हुआ सो तो मैं नहीं कह सकता, किन्तु...”

अभया बोली, “इस 'किन्तु' का विचार ही तो मैं आपके समीप चाहती हूँ, श्रीकान्त बाबू। वे अपनी बर्मी स्त्री को लेकर सुख से रहें, मुझे इसकी कोई शिकायत नहीं; किन्तु, मैं आपसे यह बात जानना चाहती हूँ कि पति जब एकमात्र बेंत के जोर से स्त्री के समस्त अधिकारों को छीन लेता है और उसे अंधेरी रात में अकेली घर के बाहर निकाल देता है, तब इसके बाद भी विवाह के वैदिक मन्त्रों के जोर से उस पर पत्नी के कर्तव्यों की जिम्मेदारी बनी रहती है या नहीं?”

किन्तु मैं चुपकी लगाए रहा। उसने मेरे मुँह पर दृष्टि ठहरा कर फिर कहा, “यह तो खूब मोटी बात है कि जहाँ अधिकार नहीं वहाँ कर्तव्य भी नहीं। उन्होंने भी तो मेरे ही साथ उन्हीं मन्त्रों का उच्चारण किया था, किन्तु, वह एक निरर्थक बकवाद ही रहा जो उनकी प्रवृत्ति पर- उनकी इच्छा पर तो जरा-सी भी रोक नहीं लगा सका। मन्त्रों की वह अर्थहीन आवृत्ति मुँह से बाहर निकलने के साथ ही मिथ्या में मिल गयी- किन्तु, क्या वह सारा बन्धन-सारा उत्तरदायित्तव मैं स्त्री हूँ इसीलिए केवल मेरे ही ऊपर रह गया? श्रीकान्त बाबू, आप तो 'किन्तु' तक कह के ही रुक गये। अर्थात् मेरा वहाँ से चला आना अन्याय नहीं हुआ, किन्तु- इस 'किन्तु' का अर्थ क्या केवल यही है कि जिसके पति ने इतना बड़ा अपराध किया है उसकी स्त्री के नारी-जन्म की यही चरम सार्थकता है कि वह उसका प्रायश्चित करती हुई जीवन-भर जीती हुई भी मृतक के समान बनी रहे? एक दिन मेरे द्वारा जो विवाह के मन्त्र बुलवा लिये गये थे- उन्हीं का बुलवा लिया जाना ही क्या मेरे जीवन का एकमात्र सत्य है, बाकी सब-बिल्कु्ल ही मिथ्या है? इतना बड़ा अन्याय, इतना बड़ा निष्ठुर अत्याचार, मेरे पक्ष में कुछ भी- कुछ भी नहीं है और क्या मेरे पतित्व का कुछ भी अधिकार नहीं है, माता होने का अधिकार नहीं है; समाज, संसार, आनन्द, किसी पर भी मेरा कुछ अधिकार नहीं हैं? यदि कोई निर्दय, मिथ्यावादी बदचलन पति बिना अपराध के अपनी स्त्री को घर से निकाल दे, तो क्या इसीलिए उसका समस्त नारीत्व व्यर्थ, लँगड़ा, पंगु हो जाना चाहिए? क्या इसीलिए भगवान ने स्त्रियों को बनाकर पृथ्वी पर भेजा था? सभी जातियों में- सभी धर्मों में इस तरह के अन्याय का प्रति‍कार है- पर मैं हिन्दू के घर पैदा हुई हूँ, क्या इसीलिए मेरे लिए सब द्वार बन्द हो गये हैं श्रीकान्त बाबू?”

मुझे मौन देखकर अभया बोली, “जवाब नहीं दिया श्रीकान्त बाबू?”

मैंने कहा, “मेरे जवाब से क्या बनता-बिगड़ता है, मेरे मतामत के लिए तो आप राह देख नहीं रही थीं?”

अभया बोली, “किन्तु इसके लिए तो समय नहीं था!”

मैंने कहा, “सो हो सकता है। आप जब मुझे देखकर भाग गयीं तब मैं भी चला जा रहा था। किन्तु फिर लौट आया सो क्यों, आप जानती हैं?”

“नहीं।”

“लौट आने का कारण यह है कि आज मेरा मन बहुत ही उद्विग्न हो रहा है। आपसे भी अधिक निष्ठुर अत्याचार मैंने एक स्त्री पर होते हुए आज सुबह देखा है।” यह कहकर जहाज-घाट की उस बर्मी स्त्री की सारी कथा मैंने विस्तार से कह सुनाई और पूछा, “वह स्त्री अब क्या करे, आप बता सकती हैं?”

अभया सिहर उठी, इसके बाद गर्दन हिलाकर बोली, “नहीं, मैं नहीं बता सकती।”

मैंने कहा, “आज आपको और भी दो स्त्रियों का इतिहास सुनाता हूँ। एक तो मेरी अन्नदा जीजी का और दूसरा प्यारी बाई का। दु:ख के इतिहास में इनमें से किसी का भी स्थान आपसे नीचे नहीं है।”

अभया चुप हो रही। शुरू से आखिर तक अन्नदा जीजी की सारी कथा कहकर मैंने ऑंख उठाकर देखा कि अभया काठ की मूर्ति की तरह स्थिर होकर बैठी है, उसकी दोनों ऑंखों से पानी झर रहा है। कुछ देर इसी तरह बैठी रहकर उसने जमीन पर सिर लगाकर नमस्कार किया और वह उठकर बैठ गयी। फिर ऑंचल से ऑंखों को पोंछते हुए बोली, “उसके बाद?”

मैंने कहा, “उसके बाद का हाल कुछ मालूम नहीं। अब प्यारी बाई की कथा सुनो। जब उसका नाम राजलक्ष्मी था तब से वह एक आदमी को चाहती थी। वह चाहना किस तरह का था सो आप जानती हैं? रोहिणी बाबू आपको जिस तरह चाहते हैं उसी तरह। यह मैंने अपनी ऑंखों देखा है, इसीलिए तुलना कर सका। इसके उपरान्त बहुत दिनों के बाद दोनों की मुलाकात हुई। तब वह 'राजलक्ष्मी' नहीं रही थी, 'प्यारी बाई' हो गयी थी। किन्तु यह बात उस दिन प्रमाणित हो गया कि राजलक्ष्मी मरी नहीं है, बल्कि प्यारी के ही भीतर चिरकाल के लिए अमर हो गयी है।”

अभया उत्सुक होकर बोली, “उसके बाद?”

बाद की घटनाएँ एक के बाद एक विस्तार के साथ सुनाकर कहा, “इसके बाद एक दिन ऐसा आ पड़ा कि जिस दिन प्यारी ने अपने प्राणाधिक प्रियतम को चुपचाप दूर हटा दिया।”

अभया ने पूछा, “उसके बाद क्या हुआ, जानते हैं?”

“जानता हूँ। पर अब नहीं कहूँगा।”

अभया ने एक नि:श्वास छोड़कर कहा, “आप क्या यह कहना चाहते हैं कि मैं अकेली ही नहीं हूँ- चिरकाल से ही स्त्रियों को ऐसे दुर्भाग्य का भोग करना पड़ रहा है और इस दु:ख को सहन करते रहने में ही उनके जीवन की चरम सफलता है?”

मैंने कहा, “मैं यह कुछ भी नहीं कहना चाहता। आपको मैं केवल इतना ही जतला देना चाहता हूँ कि स्त्रियाँ मर्द नहीं हैं। दोनों के आचार-व्यवहार एक ही तराजू से नहीं तौले जा सकते; और तौले भी जाँय तो कोई लाभ नहीं।”

“क्यों नहीं है, कह सकते हैं?”

“नहीं, सो भी नहीं कह सकता। इसके सिवाय आज मेरा मन कुछ ऐसा उद्भ्रान्त हो रहा है कि इन सब जटिल समस्याओं की मीमांसा करना सम्भव ही नहीं। आपके प्रश्न पर मैं और एक दिन विचार करूँगा। फिर भी, आज मैं आपसे यह कहे जा सकता हूँ कि मैंने अपने जीवन में जो थोड़े से महान नारी-चरित्र देखे हैं उन सबने दु:ख के भीतर से गुजरकर ही मेरे मन में ऊँचा स्थान पाया है। मैं शपथपूर्वक कह सकता हूँ कि मेरी अन्नदा जीजी अपने दु:ख का सारा भार चुपचाप सहन करने के सिवाय और कुछ न कर सकतीं। यह भार असह्य होने पर भी वे अपने पथ से हटकर कभी आपके पथ पर पैर रख सकतीं, यह बात सोचने से भी शायद दु:ख के मारे मेरी छाती फट जायेगी।”

कुछ देर चुप रहकर कहा, “और वह राजलक्ष्मी? उसके त्याग का दु:ख कितना बड़ा है सो तो मैं स्वयं अपनी नजर से देख आया हूँ। इस दु:ख के जोर से ही उसने आज मेरे समस्त हृदय को परिव्याप्त कर रक्खा है...”

अभया ने चौंककर कहा, “तो फिर क्या आप ही उसके...”

मैंने कहा, “यदि ऐसा न होता तो वह इतनी स्वच्छन्दता से मुझे इतनी दूर न पड़ा रहने देती, खो जाने के डर से प्राणपण से खींचकर अपने पास ही रखना चाहती।”

अभया बोली, “इसके मानी यह कि राजलक्ष्मी जानती है कि उसे आपके खोए जाने का डर ही नहीं है?”

मैंने कहा, “केवल डर ही नहीं, राजलक्ष्मी जानती है कि मैं खोया जा ही नहीं सकता। इसकी सम्भावना ही नहीं है। पाने और खोने की सीमा से बाहर जो एक सम्बन्ध है, मुझे विश्वास है कि उसने उसे ही प्राप्त कर लिया है और इसीलिए मेरी भी इस समय उसे जरूरत नहीं है। देखो, मैंने स्वयं भी इस जीवन में कुछ कम दु:ख नहीं उठाया है। उससे मैंने यही समझा है कि 'दु:ख' जिसे कहते हैं वह न तो अभावरूप ही है और न शून्य रूप। भयहीन जो दु:ख है, उसका उपभोग सुख की तरह ही किया जा सकता है।”

अभया देर तक स्थिर रहकर धीरे से बोली, “आपकी बात समझती हूँ श्रीकान्त बाबू! अन्नदा जीजी, राजलक्ष्मी- इन दोनों ने जीवन में दु:ख को ही सम्बल रूप से प्राप्त किया है। किन्तु, मेरे हाथ तो वह भी नहीं। पति के समीप मैंने पाया है केवल अपमान। केवल लांछना और ग्लानि लेकर ही मैं लौट आई हूँ। इस मूल-धन को लेकर ही क्या आप मुझे जीवित रहने के लिए कहते हैं?”

सवाल बड़ा ही कठिन है। मुझे निरुत्तर देखकर अभया फिर बोली, “इनके साथ मेरे जीवन का कहीं भी मेल नहीं है श्रीकान्त बाबू। संसार के सभी स्त्री-पुरुष एक साँचे में ढले नहीं होते, उनके सार्थक होने का रास्ता भी जीवन में केवल एक नहीं होता। उनकी शिक्षा, उनकी प्रवृत्ति और मन की गति एक ही दिशा में चलकर उन्हें सफल नहीं बना सकती। इसीलिए, समाज में उनकी व्यवस्था रहना उचित है। मेरे जीवन पर ही आप एक दफे अच्छी तरह शुरू से आखिर तक नजर डाल जाइए। मेरे साथ जिनका विवाह हुआ था उनके समीप आए बिना कोई उपाय नहीं था और आने पर भी कोई उपाय नहीं हुआ। इस समय उनकी स्त्री, उनके बाल-बच्चे, उनका प्रेम, कुछ भी मेरा खुद का नहीं है। इतने पर भी उन्हीं के समीप उनकी एक रखेल वेश्या की तरह पड़े रहने से ही क्या मेरा जीवन फल-फूलों से लदकर सफल हो उठता श्रीकान्त बाबू? और उस निष्फलता के दु:ख को लादे हुए सारे जीवन भटकते फिरना ही क्या मेरे नारी जीवन की सबसे बड़ी साधना है? रोहिणी बाबू को तो आप देख ही गये हैं। उनका प्यार तो आपकी दृष्टि से ओझल है नहीं। ऐसे मनुष्य के सारे जीवन को लँगड़ा बनाकर मैं 'सती' का खिताब नहीं खरीदना चाहती श्रीकान्त बाबू।”

हाथ उठाकर अभया ने ऑंखों के कोने पोंछ डाले और फिर रुँधे हुए कण्ठ से कहा, “न कुछ एक रात्रि के विवाह-अनुष्ठान को, जो कि पति-पत्नी दोनों के ही निकट स्वप्न की तरह मिथ्या हो गया है, जबर्दस्ती जीवन-भर 'सत्य' कहकर खड़ा रखने के लिए इतने बड़े प्रेम को क्या मैं बिल्कुसल ही व्यर्थ कर दूँ? जिन विधाता ने प्रेम की यह देन दी है, वे क्या इसी से खुश होंगे? मेरे विषय में आपकी जो इच्छा हो वही धारणा कर लें; मेरी भावी सन्तान को भी आप जो चाहें सो कहकर पुकारें, किन्तु जीती रहूँगी श्रीकान्त बाबू, तो मैं निश्चयपूर्वक कहे रखती हूँ कि हमारे निष्पाप प्रेम की सन्तान संसार में मनुष्य के लिहाज से किसी से भी हीन न होगी और मेरे गर्भ से जन्म ग्रहण करने को वह अपना दुर्भाग्य कभी न समझेगी। उसे दे जाने लायक वस्तु उसके माँ-बाप के समीप शायद कुछ न होगी; किन्तु, उसकी माता उसको यह भरोसा अवश्य दे जायेगी कि वह सत्य के बीच पैदा हुई है, सत्य से बढ़कर सहारा उसके लिए संसार में और कुछ नहीं है। इस वस्तु से भ्रष्ट होना उसके लिए कठिन होगा- ऐसा होने पर वह बिल्कुछल ही तुच्छ हो जाँयगी।”

अभया चुप हो रही, किन्तु सारा आकाश मानो मेरी ऑंखों के सामने काँपने लगा, मुहूर्त-भर के लिए मुझे भास हुआ कि इस स्त्री के मुँह की बातें मानो मूर्त्त रूप धारण करके बाहर हम दोनों को घेर कर खड़ी हो गयी हैं। हाँ, ऐसा ही मालूम हुआ। सत्य जब सचमुच ही मनुष्य के हृदय से निकलकर सम्मुख उपस्थित हो जाता है तब मालूम होता है कि वह सजीव है- मानों उसके रक्त-मांसयुक्त शरीर है और मानो उसके भीतर प्राण भी है- 'नहीं' कहकर अस्वीकार करने पर मानो वह चोट करके कहेगा, “चुप रहो, मिथ्या तर्क करके अन्याय की सृष्टि मत करो!”

सहसा अभया एक सीधा प्रश्न कर बैठी; बोली, “आप स्वयं भी क्या हमें अश्रद्धा की नजर से देखेंगे श्रीकान्त बाबू? और अब क्या हमारे घर न आवेंगे?”

उत्तर देते हुए मुझे कुछ देर इधर-उधर करना पड़ा। इसके बाद मैं बोला, अन्तर्यामी के समीप तो शायद आप निष्पाप हैं- वे आपका कल्याण ही करेंगे; किन्तु, मनुष्य तो मनुष्य का अन्तस्तल नहीं देख सकते- उनके लिए तो प्रत्येक के हृदय का अनुभव करके विचार करना सम्भव नहीं है। यदि वे प्रत्येक के लिए अलहदा नियम गढ़ने लगें तो उनके समाज की सबकी सब कार्य-श्रृंखला ही टूट जाय।”

अभया कातर होकर बोली, “जिस धर्म में- जिस समाज में हम लोगों को उठा लेने योग्य उदारता है-स्थान है- क्या आप हम लोगों से उसी समाज में आश्रय ग्रहण करने के लिए कहते हैं?”

इसका क्या जवाब दूँ, मैं सोच ही न सका।

अभया बोली, “अपने आदमी होकर भी अपने ही आदमी को आप संकट के समय आश्रय नहीं दे सकते? उस आश्रय की भीख माँगनी होगी हमें दूसरों के निकट? उससे क्या गौरव बढ़ता है श्रीकान्त बाबू?”

प्रत्युत्तर में केवल एक दीर्घश्वास के सिवाय और कुछ मुँह से बाहर नहीं निकला।

अभया स्वयं भी कुछ देर मौन रहकर बोली, “जाने दीजिए। आप लोगों ने जगह नहीं दी, न सही, मुझे सान्त्वना यही है कि जगत में आज भी एक बड़ी जाति है जो खुले तौर पर स्वच्छन्दता से स्थान दे सकती है।”

उसकी बात से कुछ आहत होकर बोला, “क्या हर हालत में आश्रय देना ही भला काम है, यह मान लेना चाहिए?”

अभया बोली, “इसका प्रमाण तो हाथों-हाथ मिल रहा है श्रीकान्त बाबू। पृथ्वी में कोई अन्याय-कार्य अधिक दिन तक न%E

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